लूट मचा ले, लूट मचा ले, लूट…
लूट मचा ले, लूट मचा ले, लूट...
“राम नाम की लूट है जो लूट सके सो लूट, अंत काल पछताएगा जब तन जहिए छूट।” कबीरदास ने जब कहा तब कहा। बात पुरानी हो गई है। साधु-संत समाज उलझन में है। सालगिरह मनाएं या नहीं मनाएं। पर एक बात पर सब सहमत है कि बहती गंगा में स्नान तो जी-भरकर करना है। क्या पता कब गंगा यमुना बन जाए। साधु-संत समाज में जो सबसे ज्ञानी महाराज थे उन्होंने एक विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि कबीरदास ने इस वाक्य में राम से ज्यादा लूट का जिक्र किया है, तो क्यों ना हम लूट का ही उत्सव मनाएं। वैसे भी राम तो सिर्फ हिन्दुओं के हैं। लूट तो वैश्विक है। लूट के परम लौकिक आनंद में यह विश्व रमा हुआ है। उसे दूसरे किसी चीज की चिंता-परवाह नहीं है।
आकाश, पाताल और माया का खेल
सभी साधुजन लूट का जश्न मनाने की तैयारी में लगे थे। साधुजन की खुशियों से जलने वालों की भी कमी थोड़े ही ना है। आ गए कुछ लोग अपनी डफली लेकर। कहने लगे तुम जश्न मनाओंगे तो हम काला दिन मनाएंगे। तुम्हारे इस लूट दिवस ने हमारा दिवाला निकाल दिया है। हमें बाहर का रास्ता दिखा कर तुमलोगों ने जो संगठित होकर यह लूट मचाई है, हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। फिर वे सारे सुर से सुर मिला कर बोलने लगे, नहीं करेंगे, नहीं करेंगे। साधु समाज के लूट कोष को संभालने वाले सज्जन आगे आए और पूछा, अरे सरदारजी क्या नहीं करेंगे और क्या करेंगे? आपके संगठन को भी तो मौका मिला था, तब तो आपको हमारा ख्याल नहीं आया। आपने तो अकेले आकाश से लेकर पाताल तक लूट लिया। हमारे लिए छोड़ा ही क्या था। हमने तो लूट का जुगाड़ लगाया और छुपी हुई माया को लूटने में कामयाब हुए। एक तो इतनी मेहनत की हमने और आप कह रहे हैं कि हमारे जश्न का विरोध करेंगे। विरोधियों को भी अपनी सीमा में रहना चाहिए। वैसे भी हमने तो आपके खेमे को लगभग समेट ही दिया है।
थोड़ा है थोड़े की जरूरत है
बेचारे, आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास। साधुजनों पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने लूटा नहीं है डाका ड़ाला। अब इन्हें कौन समझाए कि लूट जब बड़े पैमाने पर होती है तो अपने आप डाका हो जाती है। वैसे है तो लूट ही ना। गोमुख से गंगासागर तक कौन नहीं लूटता है हरि (हरी) आनंद को। कोई थोड़ा कम तो कोई थोड़ा ज्यादा। सब हरि के दास हैं। उन पर हरि की कृप्या बरसती है। हरि की कृप्या तो उन पर भी बरसी जो कतार में खड़े हुए थे, कुछ को तो हरि ने सीधा ऊपर, अपने पास ही बुला लिया। क्या माया है प्रभु की। दीनन के प्रभु तुम रखवारे। मुक्ति मिल गई मोह-माया के जंजाल से। कितना बड़ा परोपकार किया साधुजनों की लूट ने। थोड़ा-थोड़ा तो सबको मिला है ना, थोड़े की जरूरत है तो वह भी अगली बार पूरी हो जाएगी।
मन वैरागी हुआ जाए रे
साधुजनों के प्रधान तो कमाल के हैं। वे अपने लिए कुछ नहीं करते। नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते हैं। गीता में प्रभु ने जो कहा है उसे अक्षरश: अंगीभूत किया है। कर्म करते जाओ, फल की चिंता मत करो। ऐसे सेवक पर भी विरोधी युवराज उंगली उठा देते हैं। कहते कि वे फल खा जाते हैं कर्म नहीं करते। ठीक है भला। उनके कर्म और फल की चिंता आप क्यों करते हैं। आप अपना कर्म कीजिए। आपके संगठन को आपकी जरूरत है। जश्न बिगाड़ना भी तो कर्म ही है। लग जाईए। वरना ना तो आप धर्मस्थल पर ही उनको रोक सके और नाहीं कर्मस्थल पर। वैसे साधुजनों को भौतिक आनंद भाता नहीं है। उनका मन वैरागी हुए जा रहा है। वैरागी मन ने तो ठान लिया है कि उसे क्या करना है। जश्न-ए-माया जश्न-ए-माया करना। हम भी मनाएं, तुम भी मनाओं। दिल्ली को परम तीर्थ बनाओं। हरि की माया बसती है जिस मंदिर में, उस पर कब्जा जमाओं। साधुजनों का भजन-कीर्तन शुरू होता है। भक्तजन लूट मचा ले, लूट मचा ले, लूट.... की धुन पर धूनी रमाने लगे।
(नोट: इस लेख का नोटबंदी या किसी तरह के घोटाले से कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संबंध नहीं है।)
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